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Sunday, October 4, 2015

मैंने लिखी.… कुछ पंक्तियाँ


'दरहसल'
अभी, तुम्हारे ही बारे में सोच रहा था ।

और तुम आ गए ।
अच्छा संयोग है, या फिर जीवन ही एक संयोग है । जो भी कहो, बात एक ही है !
आज 'समझ' आयी, में कितना नासमझ हूँ ।

या कहें, नींद से आँख खुल गयी ! 'और'
दिखाई पड़ा ।

यहाँ कोई 'घर', "घर" नहीं है । सब रास्ते की सराएँ है !

'तुम्हारी'
भाषा मे कहें तो,
happy realisation !

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हक़ है
'प्रत्येक' को,
की अपनी जिंदगी जिए ।

जैसा वो चाहे,
लेकिन फिर तुम 'न' कह सकोगे कुछ
और याद रखना,
तुम ही तुम्हारे होने के ढंग के जिम्मेदार होओगे !

किसीको हक़ नही,
दूसरों की प्रकृति में विरोध करें !

सोचा था,
शायद भटका-भुला...
वापस 'घर' आ सकें !

मगर समय तुमने गवाँ दिया !
बस अब यही प्रार्थना है,
की
समय 'तुम्हे' न गवाँ दे ।

यहीं कहूँगा,
और
बार बार कहूँगा !
अब तो जागो...
अपने 'इस' रूप को जरा 'देखो'
अब तो आँखे खोलो,
'इस' स्वप्न से जाग जाओ...
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अब वही करता है...
वही लिखवाता है !

हमको तो
हमारी ही कुछ खबर नही
शायद
हम ही वहाँ है,
जहाँ से
हमको भी हमारी खबर नही आती !

न जानें कौन है,
कहाँ से आये है...!
और क्या कर्तव्य है
हमारा

ना कोई रास्ता...
ना कोई मंजिल....!
'भटक'
रहीं है ख़लाओं में जिंदगी मेरी ।

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कहा है
इस उम्मीद में,
शायद तुम भी 'जाग' जाओ
और 'देख' सको उसे...
जो देखकर भी दिखाई नहीँ पड़ता !

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अब
दखल नहीँ दूंगा
तुम किसीके भी जिंदगी मे, तुम तो समर्थ हो ।
अपने पर निर्भर हो !
और ऐसे भी,
तुम्हारा उत्तरदायित्व 'तुमपर' निर्भर है ।

बस
हमें तो इतना ही
'समझ'
रहा है !
सब बदल रहा है, सब बदल रहा है ।

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कैसे कहूँ
मैंने लिखा है ?

वो लिखवाता है,
वहीं करवाता है ।

हम तो बस देखें चले जाते है.. जैसे राह के किनारे
धूल उड़ गयी !
वैसे हम भी उड़ रहें है, सुंखे पत्तों के भांति न कोई मार्ग है,
न कोई दिशा है,

बस चले जातें है.....
जहाँ 'हवाएँ' ले जाती है ।

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बस
कहके इतना
चुप बेठना चाहते है !

कहके भी इतना,
कुछ भी न कहाँ जाता है,
और न समझा जाता है ।

बस वह चूक जाता है,
जो 'अभी' है । :'(

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आज एक और नया
'रास्ता'
दिखा दिया ए तूने-ए-अजनबी मुसाफिर हूँ,
बस चलता चला जाता हूँ । 

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बस अब...
तुम अपनी जिंदगी जिओ...
जैसे तुम चाहो..
उतना काफी है...

हम तो मुसाफिर है..
चलते चले जाते है...
आज फिर तुमने एक राह दिखा दी... बस हवाओं मे उड़े चले जाते है...!

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